(1.)अर्थ तथा उद्देश्य :- कोचिंग अंग्रेजी का शब्द है जिसका अर्थ होता है प्रशिक्षण देना, पढ़ाना या शिक्षा देना ।इस प्रकार कोचिंग सेंटर का अर्थ हुआ कि ऐसा स्थान जहां परीक्षा की तैयारी करवाई जाती हो तथा शिक्षा देने का स्थान ।
दूसरी ओर शिक्षा का अर्थ है सीखना या सिखाना ।इस प्रकार कोचिंग और शिक्षा समान अर्थ रखने वाले शब्द हैं ।परन्तु व्यावहारिक रूप से कोचिंग ज्यादा व्यावसायिकता का रूप हैं । कोचिंग तथा शिक्षा का व्यापक रूप में उद्देश्य है कि छात्रों का सर्वांगीण विकास (मानसिक, चारित्रिक तथा आध्यात्मिक) अर्थात् शिक्षा छात्रों में जीवन के सुधार के लिए उसके विवेक को जागृत करती है जिससे छात्रों के चिन्तन, चरित्र तथा व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन हो।चिन्तन चरित्र तथा व्यवहार में परिवर्तन से छात्र ओर अधिक प्रतिभावान, कर्त्तव्यनिष्ठ तथा व्यक्तित्व सम्पन्न हो । संकुचित अर्थ है कि छात्रों तथा परीक्षार्थियों को नियंत्रित वातावरण में निश्चित ज्ञान को एक समय विशेष की अवधि में देने का प्रयास करना । (2.)कोचिंग संस्थान की आवश्यकता :-शिक्षा के सम्बन्धित यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब विद्यालय शिक्षा के लिए उपयुक्त स्थान है तो फिर कोचिंग सेंटर की क्या आवश्यकता है? वस्तुतः आज के प्रतिस्पर्धात्मक में केवल विद्यालय में शिक्षा अर्जित करना समुचित नहीं है और पर्याप्त नहीं है ।विद्यालय में जो कमी रह जाती है उसकी पूर्ति तथा ओर अच्छा करने व छात्रों की क्षमताओं का विकास करने के लिए कोचिंग की आवश्यकता है ।प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कराने हेतु भी कोचिंग की आवश्यकता है ।दूसरा कारण है कि घर अध्ययन का वातावरण नहीं मिलता है इसलिए बच्चों के अतिरिक्त समय का सदुपयोग नहीं होता है ।तीसरा कारण है कि स्कूलों में पढ़ाई कराने के पश्चात बच्चों को अभ्यास करना आवश्यक है । (3.)कोचिंग सेंटर्स का कर्त्तव्य :-कोचिंग संस्थानों का यह कर्त्तव्य ही नहीं है कि परीक्षाओं तैयारी करा देना वरना कोचिंग सेंटर और विद्यालय में क्या अन्तर रह जाएगा? आखिर क्या कारण है कि विद्यार्थी या परीक्षार्थी परीक्षा देने के बाद स्वाध्यायशील नहीं होते हैं ।दरअसल इन दिनों शिक्षा हो गई है जिससे छात्र येन केन प्रकारेण परीक्षा उत्तीर्ण करना ही अपना ध्येय समझता है ।अतः कोचिंग सेंटर्स का कर्त्तव्य है उन्हें परीक्षा केन्द्रित दृष्टिकोण ही न रखकर, उनको छात्रों की स्वाध्याय में रुचि जागृत करने का प्रयास करना चाहिए ।इसके लिए कोचिंग सेंटर को उन्हें अपने सेंटर में एक पुस्तकालय, वाचनालय भी आवश्यक रूप से हों। (4.)शिक्षकों की योग्यता :- कोचिंग सेंटर में ऐसे कर्मठ तथा समर्पण युक्त शिक्षक हों जो इस संसार रूपी कीचड़ में फँसे हुए को घसीटकर किनारे तक ला सके यह पुण्य परमार्थ ही है ।हर शिक्षक को यह सोचकर कार्य करना चाहिए कि वे दूसरे के घर का नहीं बल्कि स्वयं अपने घर का ही कचरा साफ कर रहें हैं । (5.)अभिभावकों की सोच :- कुछ अभिभावकों की यह सोच होती है कि जब विद्यालय की फीस चुकाते हैं तो कोचिंग की फीस दुगुनी हो जाती है ऐसी स्थिति में निर्धन छात्र कोचिंग की फीस कैसे चुका सकते हैं? उत्तर में निवेदन है कि हम कई काम ऐसे करते हैं जो स्वेचाछापूर्वक करते हैं तथा उसमें धन भी खर्च करते हैं जैसे दान-पुण्य, तीर्थयात्रा, त्योहार, बच्चों की ख्वाहिशे, सेवा-सहायता तो कोचिंग तो बच्चों का भविष्य बनाने के केंद्र हैं शर्त यही है कि उत्कृष्ट कोचिंग सेंटर की सेवाएं ही ली जानी चाहिए ।ऐसे कोचिंग सेंटर की सेवाएं नहीं लेनी चाहिए जहां लूटने खसोटने का कार्य होता है । (6.)शिक्षा को इतना महत्त्व क्यों:- शिक्षा को इतना महत्त्व इसलिए देना आवश्यक है अर्थात् क्यों बच्चों को कोचिंग क्लासेज, पढ़ने हेतु प्रेरित किया जाए? हमारा निवेदन है कि व्यक्ति खेलकूद को फिर भी छोड़ सकता है लेकिन यदि शिक्षा से वंचित रखा जाए तो बच्चा मूढ़ और अज्ञानी रह सकता है ।नीति में कहा है कि "जो निरन्तर अध्ययनशील रहता है उसमें मूर्खता नहीं रहती है ।जो बराबर जप करता रहता है उसमें कोई पातक नहीं रह सकता है ।जो जागता रहता है उसे किसी का भी भय नहीं हो सकता है ।जो मौन धारण करनेवाला होता है उसको किसी से भी कलह नहीं होता है । (7.)अध्ययन का महत्त्व :- समाज में बिना पढ़े-लिखे या कम पढ़े लिखे को कोई नहीं पूछता है ।हर कोई उसका तिरस्कार करते हैं ।गँवार और मूर्ख समझकर उससे कोई बात नहीं करना चाहता है ।ऐसे व्यक्ति से कोई सलाह या सुझाव नहीं लेना चाहता है ।सार्वजनिक संस्थाओं में अशिक्षित को कोई पद नहीं मिलता है ।समाज में आदर व सम्मान का पात्र उन्हें ही समझा जाता है जो सुशिक्षित और सुसंस्कृत है और जिन्हें देश-विदेश की नवीनतम गतिविधियों का ज्ञान है ।जो लोग शिक्षा का महत्त्व नहीं समझते हैं वे शिक्षा लाभदायक होते हुए भी अनदेखी करते हैं ।जबकि धन का महत्त्व हम समझते हैं क्योंकि धन से सुख साधन खरीद सकते हैं इसलिए लोग धन कमाने के लिए कठिन परिश्रम करते हैं ।कुछ लोग तो धन कमाने के लिए नीति-अनीति का भी विचार नहीं करते हैं ।शिक्षा का महत्त्व वे लोग नहीं समझ पाते हैं जो मनुष्य योनि को मात्र शरीर समझते हैं तथा पेट भरने से संतुष्ट हो जाते हैं । (8.)मनुष्य जीवन का महत्त्व तथा शिक्षा का योगदान :- यह मनुष्य जीवन बड़ी मुश्किल से तथा परमात्मा की कृपा से मिला है तथा हमारा जीवनयापन समाज के सहयोग से होता है ।परन्तु हमारे सौभाग्य का उदय तब होता है जब हम सार्थक विद्या अर्जित करते हैं और हमारे अज्ञान का पर्दा हट जाता है ।लेकिन साक्षर होने से ही विद्या अर्जित नहीं हो सकती है ।धर्म, अध्यात्म, ज्ञान तथा शिक्षा अर्जित करने का अर्थ यह मान लेते हैं कि पूजा-पाठ करना, स्वर्ग प्राप्ति, देवी देवताओं से उचित-अनुचित मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है तो यही समझा जाना चाहिए कि धर्म, अध्यात्म इत्यादि का ठीक से अर्थ समझा ही नहीं हैं ।साधु-वेश में कई व्यक्ति इस प्रकार घुस गए हैं जो मौज-मस्ती का निर्वाह तथा बिना सेवा-साधनों के ही सम्मान पाते रहते हैं ।सामान्य व्यक्ति इनकी पहचान नहीं कर पाता है ।जब तक हमारा विवेक जागृत नहीं होता अज्ञान नहीं हटेगा तो ऐसे लोगों की गिरफ्त में आ जाते हैं । कोचिंग सेन्टरों की भी यही हालत है हर जगह कुकुरमुत्तों की तरह कोचिंग सेन्टरों की स्थापना हो रही है तथा अधिकांश सेन्टरों का एक मात्र उद्देश्य है धन कमाना यानि उनका एकमात्र उद्देश्य है व्यावसायिक दृष्टिकोण ।जो छात्र-छात्राएं तथा अभिभावक इन सेन्टरों के बाहरी आकर्षण, भौतिक-सुविधाओं तथा उनके आकर्षण को ही देखते हैं वे ठगे जाते हैं । सामान्यजन में ऐसी दूरदर्शिता नहीं पाई जाती है कि अच्छे तथा परमार्थ की भावना रखनेवाले कोचिंग सेंटर की पहचान कर सके ।वे तात्कालिक लाभ को देखते हुए उनके दुष्परिणाम उठाने को मजबूर हो जाते हैं ।लुटेरों, चतुरों, अनाचारियों की पहचान करना है तो अपने आपको प्रज्ञावान, प्रतिभासम्पन्न तथा विवेकवान बनाना होगा ।वातावरण ऐसा है कि जब प्रबुद्ध व्यक्ति ही ठगे जाते हैं तो सामान्यजन कहाँ लगते हैं ।इसलिए विवेक व विनम्रता के लिए शिक्षा की आवश्यकता है ।
विमर्श :- प्राचीन काल में गुरुकुल शिक्षा के केंद्र थे जिनमें नि:शुल्क शिक्षा दी जाती थी ।वर्तमान काल आर्थिक युग है अतः शिक्षा का भी व्यावसायिकरण हो गया है ।वर्तमान में शिक्षा प्राप्त करने के केंद्र कोचिंग सेंटर और विद्यालय हो गए हैं ।व्यावसायिक दृष्टिकोण रखना बुरा नहीं है परन्तु दूसरों को नुकसान पहुंचाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना गलत हैं ।यदि परीक्षार्थियों का हित करके अपना जीवनयापन करना अर्थात् व्यावसायिक दृष्टिकोण रखने में बुराई नहीं है, यह भी अपना कर्तव्य है ही ।परीक्षार्थियों का हित इसमे है कि उनको की समस्याओं का समाधान करनेवाली शिक्षा भी प्रदान की जाए ।परन्तु यह शिक्षा पात्र व्यक्ति को ही देने में ही सार्थकता है वरना उनके जीवन में विवेक, विनय का समावेश नहीं हुआ तो ऐसा शिक्षित व्यक्ति अशिक्षितों से ज्यादा स्वयं तथा दूसरों के लिए हानिकारक है ।
छात्रों द्वारा गणित में की जाने वाली त्रुटियाँ और सुधार (Common mistakes by students in mathematics ):-
(8.)जानबूझकर गलतियाँ करना :- कुछ छात्र जानबूझकर गलतियाँ करते हैं, धीरे-धीरे गलतियाँ करने की उनकी आदत हो जाती है। एक बार जो आदत हो जाती है वह मुश्किल से ही छूटती है। अतः छात्रों को जानबूझकर गलतियाँ नहीं नहीं करना चाहिए आखिर में इसका नुकसान उनको स्वयं को ही उठाना पड़ता है। (9.)प्रश्न की जाँच ठीक प्रकार से न करना :कुछ विद्या प्रश्न का हल गलत कर देते हैं और उसकी जाँच ठीक प्रकार से नहीं करते हैं जो विद्यार्थी गलती अपनी गलती को स्वयं पकड़ लेता है वह प्रखर हो जाता है। अतः एकाग्रता, अभ्यास, स्वयं का निरीक्षण करते रहने से स्वयं की गलतियां पकड़ी जा सकती है। (10.)क्रियाशील न रहना :- कुछ छात्र प्रश्न को हल करते समय ज्योहि कठिनाई आती है त्योही अध्यापक से हल करवा लेते हैं, स्वयं प्रयास नहीं करते हैं, न मस्तिष्क पर जोर डालते हैं। कई विद्यार्थियों की तो बार बार कठिन प्रश्नों को अध्यापक या साथी छात्रों से हल करवाने की आदत होती है। ऐसे छात्रों की या तो सोच ये होती है कि गणित को ऐच्छिक विषय के रूप में तो लेना नहीं है बस उत्तीर्ण होना है। परन्तु ऐसा करने से छात्रों में कठिनाईयों से जुझने की आदत का विकास नहीं होता है तथा किसी भी विषय में पिछड़े हुए ही रहते हैं। (11.)सम्पूर्ण पाठ्यक्रम की पुनरावृति करना :- कई छात्रों की सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को पुनरावृति करने की आदत होती है। सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को होशियार छात्र तो हल कर लेते हैं परन्तु साधारण छात्रों को हल करने का समय नहीं मिलता है और उनकी पुनरावृत्ति पूरी नहीं हो पाती है। इसके बजाय शुरू से ही कठिन प्रश्नों को चिन्हित कर लिया जाए तथा उनकी पुनरावृत्ति कर ली जाए तो समय की बचत हो सकती है। (12.)उच्चतर कक्षाओं में भी गणना मौखिक रूप हल न करना :- कुछ छात्र जोड़, बाकी इत्यादि गणनाएं उच्च कक्षाओं में जाने के बाद भी जो मौखिक रूप से ज्ञात की जा सकती है, उनका मौखिक रूप से हल न करने से कमजोरी रह जाती है। अतः जो जोड़, गुणा, बाकी, भाग मौखिक रूप से ज्ञात किये जा सकते हैं उन्हें मौखिक रूप से ही हल करना चाहिए। (13.)उच्चतर कक्षाओं में गुणनखण्ड, वर्गमूल जैसी छोटी कक्षाओं की समस्याओं को हल न कर पाना :- छोटी कक्षाओं में गुणनखण्ड, वर्गमूल, घनमूल, लघुत्तम समापवर्त्य, महत्तम समापवर्त्य का ठीक से अभ्यास न कर पाने के कारण छात्र प्रश्नों को हल नहीं कर पाते हैं। अतः इनका ठीक से अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास का अर्थ है कि बार बार उस टाॅपिक लगातार करते रहना जब तक कि उससे सम्बन्धित प्रश्नों को ठीक से हल न कर पाए। (14.)अध्यापक पर अत्यधिक निर्भर रहना :कुछ छात्र प्रश्नों को अध्यापक की सहायता के बिना हल नहीं कर पाते हैं। कारण यह है कि छोटी कक्षाओं में अधिक परिश्रम नहीं करते हैं जो आगे चलकर उनके लिए समस्या बन जाती है। बोर्ड की कक्षाओं को एक चुनौती के रूप में लेते हैं परन्तु अन्य कक्षाओं में को हल्के में लेते हैं या नजरअंदाज करते हैं। अतः छात्रों तथा अभिभावकों को गम्भीरता से हर कक्षा को लेना चाहिए। समीक्षा :- छात्रों को प्रत्येक कक्षा में गणित को गम्भीरता से लेना चाहिए। जितना अधिक स्वयं हल करने की कोशिश करेगें उतना ही लाभ होगा।। वस्तुतः उपर्युक्त वर्णित त्रुटियां इसलिए करते हैं कि छात्रों में परिश्रम करने की आदत, नियमितता, शुद्धता, धैर्य, सत्य के प्रति निष्ठा, एकाग्रता, ध्यान, योग जैसे गुणों के विकास में रूचि नहीं लेते हैं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में इनको शामिल नहीं किया गया है। अतः अभिभावकों, माता-पिता, अध्यापकों को इन गुणों का विकास छात्रों में करना चाहिए। यदि उपर्युक्त दिए गए सुझावों पर अमल किया जाए तो गणित विषय जिनको नीरस व कठिन लगता है उनको गणित विषय आनंददायक लगेगा।
(1.)गणित विषय एक अमूर्त विषय है। अतः छात्रों द्वारा की समस्याओं का हल करते समय चिन्तन, तर्क करने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। गणित विषय इतना कठिन नहीं जितना समझ लिया जाता है। यह कठिन इसलिए हो जाता है कि जो त्रुटियां या कमियाँ रह जाती है उनके सुधार का हम प्रयास नहीं करते हैं।
(2.)कई बार हम प्रश्न को नोटबुक में लिखते समय ही प्रश्न को गलत उतार लेते हैं। जोड़ की जगह बाकी या बाकी की जगह जोड़, कुछ भाग एक प्रश्न का तथा कुछ भाग दूसरे प्रश्न का। ऐसा इसलिए होता है कि या तो हम साथी छात्र से बात कर रहे होते हैं या हमारा ध्यान कहीं ओर जगह होता है। अतः प्रश्न को लिखते समय तथा हल करते समय मन को एकाग्र रखना चाहिए। नित्यप्रति मन को एकाग्र करने का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए। (3.)प्रश्न को एक बार हल करने के बाद, पुनरावृत्ति करते समय प्रश्न को हल नहीं कर पाते। यदि प्रश्न को अध्यापक या साथी छात्र की सहायता से हल किया गया है तो उस प्रश्न को चिन्हित कर लेना चाहिए तथा घर जाकर एक बार फिर से बिना सहायता के हल करना चाहिए। ऐसे प्रश्नों को अलग नोट बुक में उतार लेना चाहिए तथा खाली समय में हमें उसकी पुनरावृत्ति कर लेना चाहिए या पुनरावृत्ति के लिए समय न हो तो स्मरण कर लेना चाहिए। (4.)कठिन प्रश्नों को छोड़ देना :- कठिन प्रश्नों को छोड़ते रहने से हर कक्षा में सरल प्रश्नों को हल करने की प्रवृत्ति बन जाती है तथा धीरे-धीरे आगे की कक्षाओं में गणित विषय कठिन लगने लगता है। यदि हर कक्षा में गणित के कठिन प्रश्नों को हल करते रहें तथा उन कठिन प्रश्नों को फिर कभी करने के बहाने न छोड़ें तो गणित विषय कठिन नहीं लगेगा। (5.)पाठ्यक्रम के अलावा अन्य प्रश्नों को हल न करना :- हमारी वृत्ति परीक्षा केन्द्रित हो गई है अतः पाठ्यक्रम के अलावा अन्य प्रश्नों को हल नहीं करते हैं जिससे हमारी बौद्धिक क्षमता तथा चिन्तन करने की क्षमता का विकास नहीं होता है। छुट्टियों में या सत्रारंभ से ही कुछ पाठ्यपुस्तक के अलावा प्रश्नों को को भी हल करना चाहिए। इसके लिए हमें पुस्तकालय से सन्दर्भ पुस्तक लेकर अन्य प्रश्न भी हल करना चाहिए। (6.)परीक्षा के समय ही गणित का अभ्यास करना :- कई छात्र सत्रारंभ के से ही गणित का अभ्यास नहीं करते हैं तथा परीक्षा के समय ही हल करते हैं, ऐसे छात्र परीक्षा के दृष्टिकोण से ही पढ़ते हैं और चुने हुए सवाल हल करते हैं। सम्पूर्ण पाठ्यपुस्तक को हल न करने तथा पुनरावृत्ति न करने से गणित विषय उनके लिए कठिन हो जाता है। (7.)छोटी-छोटी त्रुटियों पर ध्यान न देना :- कुछ छात्र दशमलव के गुणा, भाग, वर्गमूल, घनमूल में त्रुटियाँ करते हैं। उच्चत्तर कक्षाओं में जाने के बाद इस प्रकार त्रुटियों को सुधारना उन्हें अपने स्टेट्स के अनुकुल नहीं लगता है। ऐसे छात्रों को छुट्टियों में या फिर सत्रारंभ होते ही अपनी इन छोटी-छोटी त्रुटियों को सुधार लेना चाहिए। क्रमशः
गणित के शिक्षक का जीवन युक्त होगा अर्थात् शिक्षक का जीवन पवित्र, शुद्ध व विनम्रता युक्त, धैर्यवान, साहसी, विवेकयुक्त होगा तो छात्रों को प्रभावी ढंग से शिक्षण कार्य करायेगा। यो ये गुण अन्य विषय के अध्यापक में भी मौजूद होने चाहिए परन्तु गणित जैसे जटिल विषय को पढ़ाने वाले अध्यापक में आवश्यक रूप से होने चाहिए जिससे छात्रों को पढ़ने के लिए प्रेरणा मिले।
(8.)गणित के व्यावहारिक ज्ञान की जानकारी :-
गणित का व्यवहार में कहाँ-कहाँ किस रूप में प्रयोग किया जाता या किया जा सकता है। जैसे घर का बजट बनाने, आय, मजदूरी, वस्तुओं के तौलते समय, घड़ी में समय देखते समय, बस का किराया देते समय, गणना करने में या अनुपात औसत निकालते समय इत्यादि विभिन्न कार्यों में गणित का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार का ज्ञान होने से छात्रों को उसकी व्यावहारिक उपयोगिता बताई जा सकती है।
(9.)नवीन तकनीकी का ज्ञान :-
विश्व के नागरिकों को निकट लाने में तकनीकी ज्ञान की आज के युग में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। आज तकनीकी ज्ञान के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती है। गणित के ज्ञान के प्रसार का लैपटॉप, मोबाइल, कम्प्यूटर व इंटरनेट के माध्यम से आसानी से हो तथा तीव्र गति से हो रहा है। शिक्षक घर बैठे कई समस्याओं का समाधान इनके माध्यम से छात्रों को आसानी से कभी भी, कहीं पर भी उपलब्ध करा सकता है। आज समाज की आर्थिक प्रगति तकनीकी ज्ञान पर निर्भर करती है जिसके कारण हमें जीवन में आनन्द, सुख और समृद्धि उपलब्ध हो सकता है। भावी जीवन में भी गणित के अधिक उपयोग की सम्भावना है।
समीक्षा :-
गणित का सफल अध्यापक वही हो सकता है जिसमें ज्ञान की हमेशा प्यास हो, जीवन में सादगी हो। अध्यात्म, नैतिकता व सदाचरण से युक्त जीवन हो। वस्तुतः अध्यात्म व गणित (विज्ञान) एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों के ज्ञान से व्यक्ति में पूर्णता आती है। ऐसा अध्यापक ही छात्रों को गणित विषय में रूचि का विकास कर सकता है व प्रेरित कर सकता है शर्त यही है कि अध्यापक के सिद्धांत और व्यवहार में अन्तर न हो। कई शिक्षकों को गणित का गहरा और विशद ज्ञान होता है परन्तु उनका चरित्र उज्ज्वल नहीं होता है, छात्रों पर ऐसे अध्यापक का विपरीत प्रभाव पड़ता है। अध्यापक का शुद्ध व पवित्र आचरण छात्रों को वैसा ही करने को प्रेरित करता है।
(1.)गणित एक ऐसा विषय है जिसके अध्ययन के लिए शिक्षक की आवश्यकता है ।शिक्षक में यदि सूझबूझ, विषय का गहराई से ज्ञान, छात्रों की कठिनाइयों से परिचित हो तो गणित को अत्यंत रोचक बना सकता है तथा छात्रों में तार्किक क्षमता का विकास कर सकता है ।गणित के शिक्षक में सफल शिक्षण के लिए निम्न गुणों का होना आवश्यक है :-
(2.)गणित विषय का गहराई से ज्ञान - आज का युग तकनीकी युग है अतः विषय सामग्री में नयी नयी खोजे हो रही है तथा पाठ्यक्रमों में परिवर्तन कर दिया जाता है अतः गणित शिक्षक को गहराई से जब ही ज्ञान हो सकता है जबकि उसकी अध्ययन की प्रवृत्ति हो तथा नवीन ज्ञान सीखने की रूचि हो ।
(3.)सकारात्मक दृष्टिकोण - यदि गणित के प्रति अध्यापक का सकारात्मक दृष्टिकोण होगा तो अध्यापक गणित को आवश्यक, उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण मानते है ।ऐसा अध्यापक गणित के प्रति विद्यार्थियों का सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित कर सकता है ।
(3.)व्यावसायिक दृष्टिकोण - आज का युग आर्थिक युग है अतः गणित तथा विज्ञान का देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है ।अतः जो अध्यापक गणित को पढ़ाना मजबूरी समझते हैं वे छात्रों की गणित विषय के प्रति रूचि जाग्रत नहीं कर सकते हैं परन्तु जो अध्यापक व्यवसाय के प्रति निष्ठा होती है तो अपने कार्य को कर्मठता से करते हैं वे छात्रों में रूचि उत्पन्न कर देते हैं ।
(5.)गणित को पढ़ाने का अनुभव - जिन अध्यापकों गणित पढ़ाने का अनुभव होता है वे गणित विषय को सरल रूप में छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं ।यदि अध्यापक को अनुभव नहीं होता है तो अध्यापक की त्रुटियों का छात्रों के सीखने पर प्रभाव पड़ता है ।गणित के शिक्षक को व्यापक और गहरा ज्ञान होना ही चाहिए ।हमेशा ग्रहण करते रहना चाहिए ।
(6.)अन्य विषयों का ज्ञान - गणित का सम्बन्ध अन्य विषयों से भी होता है ।जैसे रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान इत्यादि ।अतः छात्र अन्य विषयों से सम्बंधित प्रश्न पूछे तो उसका समाधान करना चाहिए ।भौतिक विषयों के अतिरिक्त नैतिक, धार्मिक व आध्यात्मिक पुस्तकों का ज्ञान भी होना चाहिए जिससे छात्रों के जीवन से सम्बंधित समस्याओं का समाधान कर सके ।
(7)मनोविज्ञान का ज्ञान - गणित के शिक्षक को मनोविज्ञान का व्यावहारिक ज्ञान भी आवश्यक है क्योंकि एक ही कक्षा के विभिन्न बौद्धिक स्तर के विद्यार्थी होते हैं ।किसी विद्यार्थी को संक्षेप में समझ में आ जाता है ।प्रत्येक विद्यार्थी के सीखने की मानसिक क्षमता अथवा स्तर समान नहीं होता है ।अतः अधिक मेधावी, मध्यम तथा मन्दबुद्धि बालकों की पढ़ने में रूचि का विकास तभी किया जा सकता है जबकि अध्यापक को मनोविज्ञान का ज्ञान होगा ।
(1.)शरीर, मन और आत्मा का संतुलित विकास ही व्यक्ति का विकास समझा जाता है जिसे कर्म, ज्ञान और भक्ति की संज्ञा दी जाती है ।इसको मन, वचन और कर्म का समन्वय भी कह सकते हैं ।गणित की शिक्षा से बालक के चिन्तन, तर्क, विश्लेषण करने की योग्यता का विकास होता है जिससे व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा के सन्तुलित विकास में सहायता मिलती है ।गणित के अध्ययन से अभ्यास, एकाग्रता और आत्म संतुष्टि जैसे गुणों का विकास होता है ।चिन्तन, तर्क, एकाग्रता, अभ्यास से व्यक्ति सत्य और असत्य का निर्णय करने में सक्षम होता है ।उसे सत्य का बोध होता है ।(2.) आज का युग वैज्ञानिक युग है तथा विज्ञान में गणित एक प्रमुख एवं मुख्य विषय है ।यह विज्ञान की रीढ़ की हड्डी के समान है ।जो व्यक्ति गणित से परिचित नहीं है उसके लिए विज्ञान व विश्व की जानकारी प्राप्त करना कठिन है (3.)भारत तथा विश्व में जो महान् दार्शनिक भी थे ।भारत में आर्यभट्ट द्वितीय, ब्रह्मगुप्त, महावीराचार्य, भास्कराचार्य तथा आधुनिक काल में श्री निवास रामानुजम, डाॅ. गणेश प्रसाद जैसे गणितज्ञ हुए हैं तथा पाश्चात्य शिक्षा शास्त्रियों में हर्बर्ट, फ्राबेल, पेस्टालाॅजी, डाॅ. मेरिया माण्टेसरी, टी. पी. नन का गणित के क्षेत्र में स्तुत्य योगदान रहा है ।
(4.)गणित विषय पढ़ा हुआ व्यक्ति दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र, वेद, उपनिषद् जैसे विषयों को आसानी से समझ सकता है । (5.)गणित की इतनी महता तथा जीवन के विभिन्न विषयों से अन्त: संबंध होने के बावजूद यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि गणित विषय को पाठ्यक्रम से हटा दिया जाए या फिर ऐच्छिक विषय के रूप में रखा जाए ।गणित विषय का व्यावहारिक जीवन, आध्यात्मिक जीवन तथा हमारे व्यव साय में महत्त्वपूर्ण योगदान है ।यह विषय इतना महत्त्वपूर्ण होते हुए भी इसको हटाने या ऐच्छिक करने की माँग क्यों उठ रही है, इसका कारण है कि मानव की प्रकृति है कि उसके सामने कोई कठिनाई या समस्या न आए तथा सीधे सरल तरीके से उसका काम हो जाए ।हमारे जीवन से धर्म अध्यात्म जैसी बातें इसलिए लोप होती जा रही है ।इसका दुष्परिणाम भी हमारे सामने है ।आज मानव तनावग्रस्त है, भाई-बंधुओ में झगड़ें, भ्रष्टाचार, दुराचार, नारी उत्पीड़न, चोरी, बेईमानी अर्थात् चारोंओर असंतोष पनप रहा है ।जबकि अध्यात्म को जीवन में अपनाने से मानसिक संतोष तो प्राप्त होता ही है साथ ही जीवन की कई समस्याओं का समाधान भी होता है ।इसलिए प्राचीन काल में भारत में बुराई कम थी, लोग बुरे कर्म नहीं करते थे ।लोगों में स्नेह, सहयोग, भाईचारा, संवेदना, दया, करुणा, प्रेम, आत्मीयता के कारण शांति रहती थी। (6)तात्पर्य यह है कि यदि गणित विषय कठिन है तो इसका जीवन बहुत ही उपयोगिता हैं ।इसलिए इसे हटाने के बजाए इसमे उपस्थित होने वाली समस्याओं व कठिनाईयों का हल करना है ।यदि समस्याएं स्वयं के प्रयास करने पर भी हल नहीं होती है तो शिक्षक की सहायता से हल हो सकती है ।विद्यालय में पर्याप्त समय नहीं मिलता है तो कोचिंग, विडियो या इंटरनेट के माध्यम से हल कर सकते हैं । (7.)चुनोतिया, समस्याएं तथा मुसीबतें एक दृष्टि से हमारे लिए अच्छी होती है क्योंकि विपत्ति में हम, हमारा मस्तिष्क अधिक सक्रिय होता है तथा एकाग्रता बढ़ती है उस समय हमें हर पल परमात्मा की याद आती है ।ऐसी स्थिति में समस्याओं का समाधान कुछ न कुछ जरूर निकलता है ।विपत्तियों में व्यक्ति निखरता है जिस प्रकार सोने को बार बार तपाने और कूटने से उसकी अशुद्धता दूर होती है उसी प्रकार विपत्तियों में हमारे अशुभ कर्मों का क्षय होता है और हमारा हृदय पवित्र और शुद्ध हो जाता है ।अस्तु गणित शिक्षा का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है ।
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