Analyst's Pendulum (trigonometry)
Analyst's Pendulum (trigonometry)
1.विश्लेषक का पेंडुलम (त्रिकोणमिति का परिचय [Introduction of Analyst's Pendulum (trigonometry)]-
इस आर्टिकल में बताया गया है कि त्रिकोत्रमिति जो कोणों से सम्बन्धित है वह भाग ज्यामिति का उपसमुच्चय है। इस प्रकार जो सीखने के नियम ज्यामिति में लागू होते हैं वे त्रिकोत्रमिति में भी लागू होते हैं।इस आर्टिकल में दो प्रमाणों प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष का वर्णन किया गया है। पाश्चात्य दर्शन के अनुसार प्रमाण दो प्रकार के हैं - प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। पाश्चात्य तर्कशास्त्र के अनुसार अप्रत्यक्ष के अन्तर्गत अनुमान और शब्द प्रमाण माने गए हैं। इस प्रकार कुल तीन प्रमाणों की चर्चा की गई है - प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द प्रमाण। प्रत्यक्ष और शब्द प्रमाण का बहुत संक्षिप्त में वर्णन किया गया है। पश्चिमी विद्वानों के अनुसार अनुमान ही मुख्य प्रमाण है।
भारतीय दर्शन में भिन्न-भिन्न दर्शन ने प्रमाण माने गए हैं परन्तु प्रमाण पर विस्तृत और गहराई से विश्लेषण न्याय दर्शन ने किया है। न्याय के लिए वात्स्यायन ने बताया है कि "प्रमाणों के द्वारा प्रमेयों (object) का परीक्षण न्याय है। सामान्य तौर पर प्रमेय का अर्थ होता है - जो प्रमाणित किया जाये, जो निश्चय किया जाए, जो सिद्ध किया जाए। दर्शन में प्रमेय शब्द का प्रयोग प्रमा यानि कि यथार्थ ज्ञान के विषय के रूप में किया जाता है। न्याय दर्शन में प्रमेय का तात्पर्य उस प्रमा के विषय से है जिससे कि नि:श्रेयस की प्राप्ति में सहायता मिलती है। न्याय दर्शन में 12 प्रमेयों की चर्चा की गई है - आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्याभाव, फल, दु:ख तथा अपवर्ग(मोक्ष) ।
सांसारिक वस्तुओं जिसमें गणित भी सम्मिलित है के ज्ञान के लिए भी पर्याप्त अनुभव व सधे हुए दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है और ज्ञान का विषय जब पारलौकिक हो अर्थात् आत्मा-परमात्मा हो तब तो फिर केवल ऋषियों, सन्तों के कोटि के मनीषियों की बात का महत्त्व ही स्वीकार किया जा सकता है। ऋषि-मुनियों का महत्त्व इसलिए होता है कि उनके द्वारा प्रणीत सिद्धान्त व्यावहारिक होता है अर्थात् सिद्धान्तों को व्यवहार में प्रयोग करने के पश्चात ही वे जनसाधारण को अमल करने हेतु बताते हैं। ऋषियों, सन्तों और मुनियों में भी पारस्परिक मतभेद सम्भव है। अतः अज्ञान के निवारण के लिए अर्थात् गणित सम्बन्धी हमारी अज्ञानता है उसे दूर करने के लिए अपने पूर्वजों ने अपने तप द्वारा जो ज्ञान बताया है उसमें विरोधाभास हो तो उस ज्ञान का सहारा लेते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सत्य या तत्त्वज्ञान गहराईयों में छुपा रहता है। उसका जिस ऋषि को जिस अंश का अनुभव हुआ वैसा ही उन्होंने वर्णन किया है। किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि हमारा परिचय तत्त्वज्ञान के जिस रूप या अंश से है, उससे भिन्न उसका कोई रूप या अंश नहीं हो सकता है। विभिन्नता के इस मूलभूत सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने पर यह बात समझ में आ सकती है कि भारत में दर्शनों की संख्या एक से अधिक क्यों है? प्रत्येक दर्शन के साधनों के स्वरूप विश्लेषण की आवश्यकता क्यों है और न्यायशास्त्र को सब विद्याओं का दीपक क्यों कहा गया है।
2.प्रमाणों का महत्त्व(Importance of Evidence) -
प्रमाणों के द्वारा अर्थ परीक्षण को न्याय कहा जाता है। प्रमेय, प्रमा(ज्ञान) और प्रमाण में ज्ञान की सारी प्रक्रिया सम्मिलित है। सामान्यतया कई लोग यह कह सकते हैं कि सांसारिक व्यवहार में उन्हें प्रमाण जैसे साधन की आवश्यकता नहीं होती है परन्तु सांसारिक जीवन में अन्य शास्त्रों के बिना भी काम चलता रहता है। परन्तु शास्त्रों के ज्ञान के बिना भी जो व्यवहार होता है वह गूंगे के गुड़ के समान, गूंगा वर्णन नहीं कर सकता है और शास्त्र ज्ञान सहित जो कार्य होता है वह विद्या सम्पन्न मनुष्य द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं के समान वर्णनीय होता है। मनुष्य एक चेतन सम्पन्न, विवेकयुक्त तथा सामाजिक प्राणी है। ये सब शक्तियाँ उसमें जन्मजात होती है किन्तु जिस रूप में इन शक्तियों का विकास हुआ उसमें उसके पूर्वानुभवों के सामान्यीकरण के आधार पर निश्चित किए नियमों का बड़ा हाथ है।जिज्ञासा की प्रवृत्ति भी मनुष्य में जन्मजात होती है। जिज्ञासा की कई दिशाएँ व उद्देश्य हो सकते हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हम जगत् और जीवन के रहस्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करके लौकिक (वर्तमान जीवन) और अलौकिक (आगामी जीवन) को सुखी बनाना चाहते हैं। भौतिक दृष्टि से आम आदमी को ही नहीं बल्कि बुद्धिमान मनुष्यों को कभी-कभी कई मामलों में भ्रांतियां हो जाती है। इससे यह प्रश्न खड़ा होता है कि भ्रम के क्या कारण होते हैं और भ्रम के अभाव यानि ज्ञान के साधन क्या हैं? इसे नकारात्मक दृष्टि से देखा जाए तो प्रमाण भ्रम से बचाव का मार्ग भी सिद्ध होता है। शंकराचार्य ने तो स्पष्ट ही यह कहा है कि प्रमाण अज्ञान (अविद्या) को दूर करता है ज्ञान नहीं देता है। किन्तु अगर विचार किया जाए तो हम भाव और अभाव में से भाव पर अधिक ध्यान देते हैं क्योंकि उसका विश्लेषण करना अनुकूल होता है। यही कारण है कि प्रमाण मीमांसा पर लगभग सभी भारतीय दर्शनों ने कुछ न कुछ चर्चा अवश्य की है। वैसे यह बात भी स्पष्ट ही है कि प्रमाणों का महत्त्व दार्शनिक दृष्टि से अधिक है। दर्शनों का विषय प्रमुख रूप से ज्ञान का विश्लेषण रहा है अतः प्रमाणों को उनमें पर्याप्त स्थान मिलना स्वाभाविक ही था।
2.न्याय दर्शन के अनुसार प्रमाणों की परिभाषा(Equality and Inequality in Western Logic and Indian Jurisprudence -) -
(1.)प्रत्यक्ष(Evident) :-
इन्द्रिय और विषय के संयोग से उत्पन्न ऐसा ज्ञान प्रत्यक्ष है जो दोषरहित, निश्चित तथा शब्दों के द्वारा प्रकट न किया जा ओ।इन्द्रिय - दो प्रकार की है कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय। प्रत्यक्ष का सम्बन्ध पाँच ज्ञानेन्द्रियों से होता है। सूंघना, चखना, स्पर्श करना, सुनना, देखना इन इन्द्रियों से गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द व रूप का ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष प्रमाण अपने अस्तित्व के लिए किसी प्रमाण पर आश्रित नहीं है जबकि अन्य प्रमाण अपने अस्तित्व के लिए प्रत्यक्ष पर आश्रित हैं। अन्य प्रमाणों की सत्यता के सम्बन्ध में संदेह उत्पन्न होने पर उसका निवारण भी प्रत्यक्ष से ही होता है। उसके अतिरिक्त कई अवसरों पर लोगों को जो भ्रम हुआ करता है उसके निवारण का एकमात्र उपाय भी प्रत्यक्ष ही है। ज्ञान को प्राय: अनुभव पर आधारित माना गया है परन्तु अनुभव भी प्रत्यक्ष पर ही निर्भर है।
(2.)अनुमान Estimate)-
पूर्वज्ञान के स्मरण होने के बाद वस्तु का ज्ञान होता है और वस्तुज्ञान से अप्रत्यक्ष वस्तु की जो जानकारी होती है उसी को अनुमान कहते हैं।(3.)उपमान(Similar) -
ज्ञात वस्तु की सादृश्यता के आधार पर अज्ञात वस्तु के ज्ञान के साधन को उपमान कहा जाता है। जैसे गाय के आधार पर नील गाय का ज्ञान होना।(4.)शब्द प्रमाण(Word proof)- -
जो वस्तु जैसी है, उसको वैसी ही बताने वाले (अर्थात् वस्तुओं का साक्षात ज्ञान कर उनकों वास्तविक रूप में दूसरे को बताने वाले) पुरुष के उपदेश को शब्द कहते हैं।3.पाश्चात्य तर्कशास्त्र और भारतीय न्यायशास्त्र में समानता व असमानता(Equality and Inequality in Western Logic and Indian Jurisprudence -)-
इस सम्बन्ध में सबसे विचारणीय बात तो यह है कि क्या संसार के विभिन्न क्षेत्रों में एक ही समय में विभिन्न लोग एक ही प्रकार की बात नहीं सोच सकते हैं? अनुभव बताता है कि इस बात के मना करने का कोई सर्वसम्मत प्रामाणिक आधार नहीं है बल्कि सभी महापुरुष एक जैसा ही सोचते हैं - जैसी कहावतें इस मत का समर्थन करती हैं कि एक ही समय में विभिन्न चिन्तक एक दूसरे से अपरिचित और अप्रभावित रहते हुए भी एक ही प्रकार की बात सोच सकते हैं। यदि इस दृष्टि से पूर्व मताग्रह को छोड़कर भारतीय न्याय और पाश्चात्य तर्कशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो हमारे सामने निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट होते हैं -न्याय सूत्र जो कि भारतीय न्याय शास्त्र का आधार है, ऊपर से थोपा हुआ या एकाएक लिखा हुआ ग्रन्थ नहीं है अपितु भारतीय समाज में एक लम्बी परम्परा से चली आ रही सकारात्मक वाद-विवाद का परिणाम है।
भारत में तर्कशास्त्र और प्रमाणशास्त्र का विकास सम्मिलित रूप से हुआ है किन्तु पाश्चात्य दार्शनिकों ने इन दोनों शास्त्रों का विश्लेषण अलग-अलग किया है। न्यायशास्त्र 'यथार्थ' को उद्देश्य मानकर चलता है जबकि पाश्चात्य तर्कशास्त्र प्रयोजन 'सत्य' की प्राप्ति है। विचारों की संगति ही सत्य है। शुद्ध विचार के अनुकूल कोई वस्तु संसार में है या नहीं, इस पर पाश्चात्य तर्कशास्त्र विचार नहीं करता जबकि भारतीय न्यायशास्त्र के किसी विचार का सत्य होने के साथ यथार्थ होना आवश्यक है। सत्य की पहचान व्यावहारिक सफलता से होती है न कि मात्र विचारों की संगति से। तर्कशास्त्र में वाक्य की पुष्टि आगमन और निगमन द्वारा की जाती है जबकि न्यायशास्त्र इसके लिए अलौकिक प्रत्यक्ष का सहारा लेता है। तर्कशास्त्र का विषय मुख्यरूप से अनुमान है किन्तु न्यायशास्त्र प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के विवेचन पर भी समान बल देता है। तर्कशास्त्र में प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द इन तीन प्रमाणों को स्वीकार किया है जबकि न्यायशास्त्र में उपमान को भी प्रमाण माना गया है।
पाश्चात्य तर्कशास्त्र में सत्य को दो भागों में बांटा गया है - आकारिक सत्यता और वास्तविक सत्यता। भारतीय न्याय में इस प्रकार का विभाजन स्वीकार नहीं है। 'सोने का पहाड़' इस वाक्य में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के अनुसार आकारिक सत्यता है और 'पत्थर का पहाड़' इस वाक्य में वास्तविक सत्यता है। पर भारतीय नैयायिकों के अनुसार आकारिक सत्यता का व्यावहारिक जीवन में कोई उपयोग नहीं है। इसके अतिरिक्त वास्तविक सत्यता में आकारिक सत्यता भी रहती ही है। अतः सत्य के दो रूप मानने की आवश्यकता नहीं है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र के निगमन और आगमन भेद जो क्रमशः आकारिक सत्यता और वास्तविक सत्यता को आधार मानकर चले हैं, भारतीय नैयायिकों को मान्य नहीं है क्योंकि इन दोनों में से कौन पहला है इसका निराकरण संभव नहीं है और इस प्रकार का विभाजन मानने से तर्क प्रक्रिया भी खंडित हो जाती है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र के अनुसार ज्ञान की सत्यता की जाँच पूर्व अनुभूति के आधार पर होती है परन्तु न्यायशास्त्र के अनुसार ज्ञान की यथार्थता उसकी व्यावहारिक सत्यता पर निर्भर करती है। निष्कर्ष यह है कि भारतीय न्याय शास्त्र और पाश्चात्य तर्कशास्त्र का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है।
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4 .विश्लेषक का पेंडुलम (त्रिकोणमिति)[Analyst's Pendulum (trigonometry)]-
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कुछ भौतिक विज्ञान और जीआईएस के बाहर ज्यामिति और इसके त्रिकोणमिति उपसमुच्चय अक्सर एनालिटिक्स से संबंधित नहीं होते हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से, वे सीधे संबंधित हैं। रुको क्या?
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5.प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष(Direct And Indirect)-
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लेकिन फिर, यह वास्तव में एक सबूत विकसित करने में सबक नहीं था, क्या यह था? इनडायरेक्ट और डायरेक्ट केवल रास्ते की यात्रा होती है। क्या आप कुछ साबित करने के लिए जाएंगे (खुले सिस्टम में अत्यधिक कठिन) या आप अधिक सर्किट में आएंगे? वास्तव में, यह सही कोणों के बारे में अधिक है ... या शायद:
6.त्रिकोणीयकरण(Triangulation)-
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आगमनात्मक तर्क या अपहरण में - यदि आप पसंद करते हैं, तो त्रिकोणासन काफी महत्वपूर्ण है। इन परिदृश्यों में, डेटा अक्सर अपूर्ण होता है। हमें विभिन्न डेटा (पॉइंट), ट्रेंड (रेखाएं), और मेथडोलॉजी (कोण) का उपयोग करके एक अवधारणा (या त्रिकोण) की हमारी समझ विकसित करने की आवश्यकता है। देखें, क्या अब बहुत खिंचाव नहीं था? और जबकि किसी को खुले सिस्टम में आपके त्रिकोणासन को साबित करने की कोशिश करने के बारे में जाने की संभावना नहीं है (वे अभी तक बहुत खुले हुए हैं), इसका मतलब यह नहीं है कि यह संभव और वैध दोनों नहीं है (या अमान्य साबित होने में सक्षम)।
यह मान्यता कभी भी मामले की सच्चाई को साबित नहीं कर सकती है, केवल इस संभावना को बढ़ाएं कि यह गलत नहीं है। हमेशा कैविएट, धारणाएँ और अन्य परिसीमन होते हैं जो सिस्टम को "बंद" करने की कोशिश करते हैं - उच्च निश्चितता के लिए अनुमति देते हैं। यह कुछ हद तक मैला प्रक्रिया है। ज्यादातर ओपन सिस्टम हैं। और अप्रत्यक्ष प्रक्रियाएं - दोगुनी होती हैं।
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त्रिकोण हमें सिखाते हैं कि "समान" समतुल्य या समान नहीं है (न ही बधाई, लेकिन मैं पचाता हूं)। एक उदाहरण के रूप में, अलग-अलग आबादी, कार्यप्रणाली, या समय सीमा के साथ तीन अलग-अलग सर्वेक्षण परिणामों का उपयोग करना, किसी खोज को मान्य करने के लिए पर्याप्त नहीं है ... केवल परिणाम समान साबित होते हैं। फिर, कोई भी (जो मुझे मिला है) इसे औपचारिक रूप दे रहा है। ओपन सिस्टम ऐसी अवधारणा के अनुप्रयोग को बहुत कठिन बना देता है और जो इसे "साबित" करने में कठिनाई के लिए अतिरिक्त है।
अंत में, त्रिकोण स्विंग करने के लिए हमारे पेंडुलम के लिए एक अच्छा ढांचा है। यह खुले सिस्टम और अपहरण के तर्क के लिए विशेष रूप से सच है। तो त्रिकोणमिति से सबक लें और पढ़ने के लिए धन्यवाद!
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