Nature of Mathematics
May 24, 2019
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satyam coaching centre
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गणित की प्रकृति (Nature of Mathematics) -
1.भूमिका(Introduction)-
Nature of Mathematics |
गणित वस्तुतः संकल्पनाओं तथा गूढ़ विचारों की विषय सामग्री है। इस विषय की प्रकृति अन्य विषयों से भिन्न है। हिन्दी, इतिहास, अर्थशास्त्र, भूगोल, सामान्य विज्ञान आदि की विषयवस्तु जीवन के अनुभवों से सीधे सम्बन्धित रहती है तथा इनके विषय-क्षेत्र परस्पर अधिक गहराई से उतने जुड़े हुए नहीं होते हैं जितने गणित विषयवस्तु के। हिन्दी में यदि आपको 'तुलसी' भलीभांति समझ में नहीं आया है तो भी 'सूरदास' को समझने में आपको विशेष बाधा नहीं आएगी। इसी प्रकार भारत के प्राकृतिक भागों की जानकारी आपको पूरी तरह नहीं है तो भी आप द्वारा किये गए निर्यातों को समझ सकते हैं किन्तु यह स्थिति गणित में नहीं है। यदि आपको दशमलव के सिद्धांत स्पष्ट नहीं है तो आप किसी भी स्थिति में लम्बाई, क्षेत्रफल, आयतन आदि से संबंधित समस्याओं को हल नहीं कर सकते हैं। इसी प्रकार किसी विद्यार्थी को बिन्दु, रेखा, त्रिभुज, आयत, वर्ग आदि की संकल्पनाएं स्पष्ट नहीं हो तो वह ज्यामिति के साध्यों को नहीं समझ सकेगा। बीजगणित में छात्र यदि बीजीय राशियों का जोड़, गुणा, बाकी, भाग आदि संक्रियायें नहीं जानते हैं तो वे गुणनखण्ड, समीकरण, ग्राफ आदि की समस्याओं को दक्षता के साथ हल नहीं कर सकेंगे। ये तथ्य गणित विषय से विशेष रूप से सम्बंधित हैं तथा गणित विषयवस्तु की प्रकृति पर प्रकाश डालते हैं।
Nature of Mathematics |
2.गणित की प्रकृति एवं संरचना की निम्नांकित विशेषताएँ हैं(The following characteristics of the nature and structure of mathematics are) -
(1.)गणित की भाषा अन्तरराष्ट्रीय है। भाषा से यहाँ तात्पर्य है-पद, संकल्पनाएं, सूत्र, संकेत, सिद्धान्त, प्रक्रियाएं आदि। विश्व के सभी शिक्षा संस्थानों में गणित की लगभग समान विषयवस्तु पढ़ाई जाती है। चूँकि गणित एक अन्तर्राष्ट्रीय विषय है, अतः इसके विकास में सभी देशों के गणितज्ञों का योगदान रहा है। भाषा, भूगोल, रहन-सहन, इतिहास आदि अलग होने के बावजूद गणित की भाषा सभी देशों में समान है। जोड़, बाकी, गुणा, दशमलव, प्रतिशत, औसत, समुच्चय, सम्बन्ध , फलन आदि के सिद्धांत विश्व के सभी शिक्षा संस्थानों समान हैं। गणित की भाषा सांकेतिक है।(2.)गणित में संख्याओं, स्थान, मापन आदि का अध्ययन किया जाता है। संख्याओं, स्थान एवं मापन से सम्बंधित सिद्धान्तों के आधार पर ही अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति, समुच्चय, सम्बन्ध, फलन आदि का विकास हुआ है।
(3.)स्थूल वस्तुओं के निरीक्षण तथा ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से गणित की नई संकल्पनाओं की खोज की जाती है तथा उन्हें संख्यात्मक तथा बीजीय भाषा में प्रकट किया जाता है। वातावरण में घटित घटनाओं एवं तथ्यों की सहायता से गणितीय सिद्धान्तों को खोजा जाता है।
(4.)गणित में सामान्यीकरण, आगमन, निगमन, अमूर्तन आदि मानसिक क्रियाओं की सहायता से सिद्धान्तों, प्रक्रियाओं, सूत्रों आदि को गणितीय भाषा में प्रकट किया जाता है।
(5.)गणित की विषयवस्तु में क्रमबद्धता तथा व्यवस्था है। गणित सीखने हेतु निश्चित क्रमबद्धता को आधार बनाया जाता है तथा प्रत्येक पद को समझकर ही आगे बढ़ा जा सकता है। गणित के ज्ञान में कमियाँ, बाधा उत्पन्न करती हैं तथा ज्ञान की व्यवस्था में तारतम्य स्थापित नहीं हो पाता है। किसी उप-विषय को सीखने के लिए उससे सम्बन्धित समस्त सामग्री को व्यवस्थित तरीके से समझना आवश्यक है। यदि ज्ञान में कोई कमी रह जाती है तो गणित की समस्याओं को हल करने में तथा आगे की सम्बन्धित सामग्री को समझने में तथा सह-सम्बन्धता स्थापित करने में कठिनाईयां आती है।
(6.)गणित कक्षा-अध्यापन का विषय है। इसको सीखने के लिए अध्यापक का मार्गदर्शन आवश्यक है। गणित को अध्यापक की सहायता के बिना सीखना कठिन है क्योंकि यह विषय वस्तुतः संकल्पनाओं का विषय है। इसलिए गणित के अध्यापकों को अपना अध्यापन कार्य निरन्तर करते रहना आवश्यक है। जो विद्यार्थी गणित की कक्षाओं से कुछ दिनों तक अनुपस्थित रह जाते हैं, उन्हें स्वयंपाठी के रूप में गणित सीखने में कठिनाई होती है।
(7.)गणित में अभ्यास हेतु विद्यार्थियों के समक्ष समस्याएं प्रस्तुत की जाती हैं तथा उनके हल करने में सूत्रों, सिद्धान्तों, प्रक्रियाओं आदि का प्रत्यक्ष प्रयोग किया जाता है। समस्या समाधान इस विषय की एक प्रमुख अध्यापन विधि है। यदि समस्याएं वास्तविकताओं एवं जीवन के तथ्यों पर आधारित हों तो इन्हें हल करने में विद्यार्थियों में उत्साह बना रहता है तथा वे इस विषय की सामाजिक एवं व्यावहारिक उपादेयता से परिचित होते हैं।
(8.)गणित के निष्कर्ष निश्चित एवं तर्कसंगत होते हैं। इन निष्कर्षों को सत्यापित किया जा सकता है। गणित के निष्कर्षों का निरूपण तर्क एवं बुद्धि की सहायता से किया जाता है। समस्याओं के तथ्यों को परिवर्तन करने पर निष्कर्ष भी बदल जाते हैं।
(9.)यदि विद्यार्थी गणित की संकल्पनाओं को भलीभांति समझ ले तो यह विषय उन्हें सरल एवं रूचिकर लगता है। इस विषय को सीखने के लिए सतत् परिश्रम एवं लगन की आवश्यकता है। जो विद्यार्थी केवल परीक्षा के दिनों में ही पढ़कर इस विषय में उत्तीर्ण होना चाहते हैं उनके लिए यह धीरे-धीरे एक कठिन विषय बन जाता है।
(10.) गणित सीखने में यदि विद्यार्थी के मस्तिष्क में कोई विषय सम्बन्धी संशय हो तो उसका समाधान अध्यापक या किसी अच्छे विद्यार्थी की सहायता से जल्दी ही कर लिया जाना चाहिए अन्यथा विद्यार्थी को आगे की विषयवस्तु सीखने में कठिनाई होगी।
(11.)गणित एक प्रकार से रसहीन विषय है क्योंकि भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र आदि की तरह गणित में प्रयोगशाला नहीं होती है तथा गणित की समस्याओं का प्रयोगशाला में भौतिक सत्यापन वर्तमान परिस्थितियों में सम्भव नहीं है। गणित सीखने में मानसिक चिंतन एवं मौलिकता ही प्रमुख है।
(12.)अच्छे सफल एवं प्रभावी अध्यापक विद्यार्थी को गणित सीखने में सक्रिय सहायता देते हैं। यदि गणित का अध्यापक प्रभावी ढंग से कक्षा में इस विषय को नहीं पढ़ाता है तो उसके विद्यार्थी इस विषय में पिछड़ जाते हैं। जिन शिक्षण संस्थानों में गणित की विभिन्न अध्यापन सामग्री का कक्षा में प्रभावी अध्यापन हेतु उपभोग होता है वहां के विद्यार्थियों को गणितीय संकल्पनाओं का भौतिक स्वरूप अधिक स्पष्ट होता है। इस विषय से संबंधित फिल्में , माॅडल, चार्ट्स आदि का अधिकाधिक उपयोग करने से यह विषय रुचिप्रद बन जाता है।
(13.)हमारी संस्कृति के विकास में गणित का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। वर्तमान भौतिक प्रगति गणित की ही देन है। किसी देश की प्रगति का स्तर वहां की भौतिक प्रगति का सूचक है। गणित के सृजन के लिए मौलिकता, चिंतन एवं सृजनशीलता की आवश्यकता है।
(14.)गणित की विभिन्न शाखाओं का मूलभूत आधार संख्या प्रणाली है। संख्याओं को बीजगणितीय प्रतीकों से प्रकट कर उनकी विशेषताओं का विवेचन किया जाता है।
(15.)नवीन गणित की प्रगति लगभग पिछले 150 वर्षों में हुई है तथा समुच्चय भाषा का आधुनिक गणित में प्रयोग किया जाता है।
(16.)यह एक अमूर्त विषय है। गणित को अमूर्त विचारों एवं आकृतियों का विज्ञान कहा जाता है।
(17.)गणित की प्रकृति में गूढ़ता एक महत्वपूर्ण घटक है। प्रत्येक गणितीय कथन का निश्चित आधार होता है। कोई बात बिना आधार के स्वीकार नहीं की जा सकती है। उदाहरणार्थ ज्यामिति में उपपत्ति के प्रत्येक पद का ठोस आधार होता है तथा निगमन विधि के बिन्दुओं को ठोस सैद्धान्तिक आधार प्रदान किया जाता है।
(18.)गणित की विषयवस्तु में सांमनजस्यता है। गणित में एक प्रकार की निश्चितता है जिसके कारण चिंतन में होने वाली सम्भावित त्रुटियां कम हो जाती है।
गणित में स्वयंसिद्धियाँ, अपरिभाषित शब्दों आदि को चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता है जब तक कि वे परस्पर एकरूप हैं। जिस प्रकार संगीतज्ञ, चित्रकार, मूर्तिकार आदि को असीमित स्वतंत्रता होती है उसी प्रकार गणितज्ञों को भी गणित के निर्माण में पूरी स्वतंत्रता है यदि मूलभूत सिद्धान्तों में टकराव न पैदा होता हो। गणित, देखने एवं सोचने का नया तरीका है।
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