Mathematician Aryabhatta pratham

गणितज्ञ आर्यभट्ट (प्रथम) (Mathematician Aryabhatta pratham

(1,)आर्यभट्ट (प्रथम )की जीवनी (Biography of Aryabhatta pratham)-

आर्यभट्ट (प्रथम) पटना के समीप कुसुमपुर नामक नगर में सन् 476 ई. में पैदा हुए थे। इनके तीन ग्रन्थों का पता चलता है - दशगीतिका, आर्यभटीय और तन्त्र। इनमें आर्यभटीय सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है। इसी नाम के अन्य ज्योतिष 950 ई. के लगभग हो गए, जिन्होंने 'महा-सिद्धान्त' नामक पुस्तक की रचना की। इसलिए इन्हें आर्यभट्ट प्रथम कहेंगे।
Mathematician Aryabhatta pratham

Mathematician Aryabhatta pratham

(2,)गणित में आर्यभट्ट का योगदान (Contribution of Aryabhatta in Mathematics)-

इन्होंने अपने ग्रन्थ 'आर्यभटीय' की रचना 499 ई. में कुसुमपुर जिले में की। इस जिले को आजकल पटना कहते हैं। आर्यभटीय में 121 श्लोक हैं जो चार खण्डों में विभाजित किये गए हैं - (1.)गीत पाटिका (2.)गणित पाद (3.)कालीक्रियापाद और (4.)गोलपाद ।
गोलपाद बहुत छोटा ग्रन्थ है। इसमें कुल मिलाकर 11 श्लोक हैं परन्तु इसमें इतनी सामग्री भर दी है जो सूर्य-सिद्धान्त के पूरे मध्याधिकार और कुछ स्पष्टीकरण में आई है। इसमें आर्यभट्ट ने संक्षेप में लिखने की अनोखी रीति का निर्माण किया है।
अंकगणित और रेखागणित
आर्यभट्ट पहले आचार्य हुए हैं जिन्होंने अपने ज्योतिष गणित में अंकगणित तथा बीजगणित एवं रेखागणित के प्रश्न दिए हैं। उन्होंने बहुत से कठिन प्रश्नों को 30 श्लोकों में भर दिया है
एक श्लोक में श्रेणी गणित के 5 नियम आ गए हैं।
दूसरे श्लोक में दशमलव पद्धति का वर्णन है। इसके आगे के श्लोकों में वर्ग का क्षेत्रफल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, शंकु का घनफल, वृत्त का क्षेत्रफल, गोले का घनफल, विषम चतुर्भुज के क्षेत्र के कणों के सम्पात से दूरी और क्षेत्रफल तथा सब प्रकार के क्षेत्र की मध्यम लम्बाई और चौड़ाई जानकर क्षेत्रफल जानने के साधारण नियम दिए हुए हैं। एक जगह यह बताया गया है कि परिधि के छठवें भाग की ज्या उसकी त्रिज्या के समान होती है। एक श्लोक में बताया गया है कि वृत्त का व्यास 20000 हो तो उसकी परिधि 62832 होती है। इसमें परिधि तथा व्यास का सम्बन्ध चौथे दशमलव स्थान तक शुद्ध आ सकता है। आगे वृत्त, त्रिभुज तथा चतुर्भुज खींचने की रीति, किसी दीपक तथा उससे बने शंकु की छाया, दीपक की ऊँचाई तथा दूरी जानने की रीति, एक ही रेखा पर स्थिर तथा दीपक की दूरी में सम्बन्ध ज्ञात करना, जाना जा सकता है।
बीजगणित में साधारण नियम तथा दो राशियों का गुणनफल जानकर और अन्तर जानकर राशियों को अलग-अलग करने की रीति, भिन्नों के हरों को सामान्य हरों में बदलने की रीति, भिन्नों में गुणा और भाग देने की रीति, जितनी बातें ये 12 श्लोकों में भर दी गई है, लेकिन आजकल की परिपाटी की तरह पुस्तक बनाई जाए तो यही एक मोटा ग्रन्थ बन जाएगा।
आर्यभटीय में त्रिकोणमिति का उल्लेख मिल जाएगा। ज्या का प्रयोग सबसे इसी ग्रन्थ में मिलता है। इसमें ज्या और उत्क्रमज्या की भी सारणियाँ दी है। इस ग्रन्थ में ज्या सारणी बनाने के लिए दो नियम दिए गए हैं, उनमें से एक इस प्रकार है - पहली ज्या में से, उसको उसी से भाग देकर घटा दो इस प्रकार सारणीय ज्याओं का दूसरा अन्तर प्राप्त होगा। कोई सा भी अन्तर निकालने के लिए उससे पिछले अन्तरों के जोड़ को पहली ज्या से भाग देकर उससे पिछले अन्तर में से घटा दो। इस प्रकार सारे अन्तर प्राप्त हो जाएंगे।

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