What Is True Friendship
August 06, 2019
By
satyam coaching centre
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What Is True Friendship
1.सच्ची मित्रता क्या है ?(What Is Friendship)-
What Is True Friendship |
Friendship
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Friendship
मित्र दोस्त, सखा, बंधु का पर्यायवाची है. समृद्धि के समय तो मित्र बनते हैं. सच्चा मित्र संकट के समय साथ देता है अतः
संकट के समय सच्चे मित्र की पहचान होती है. मित्रता समान गुण, कर्म, स्वभाव से सुशोभित होती है.
अपि सम्पूर्णता युक्तै:कर्तव्या सुहृदो बुधै:|
नदीश:परिपूर्णो$पि चन्द्रोदयमपेक्षते||
चाहे सब प्रकार से भरा-पूरा हो परन्तु फिर भी बुद्धिमान मनुष्य को मित्र अवश्य बनाना चाहिए. देखो, समुद्र सब प्रकार से परिपूर्ण होता है परन्तु चन्द्रोदय की इच्छा फिर भी रखता है.
मित्रता रखने की कुछ शर्त है पहली शर्त यह है कि किसी भी मुद्दे पर वाद-विवाद नहीं करना चाहिए बल्कि मुद्दे को बातचीत से हल करना चाहिए. विवाद से मतभेद पैदा होता हो जाता है. दूसरी शर्त है कि मित्र से कभी आर्थिक लेन देन न करे यदि करे तो हिसाब किताब साफ रखे. तीसरी शर्त है कि मित्र की पत्नी से अकेले में न मिले इससे मित्र के मन में सन्देह पैदा होता हो सकता है जिससे मित्रता टूट सकती है. अतः मित्रता के निर्वाह में इन शर्तों का पालन करना चाहिए.
वस्तुतः ऊपर मित्र के जिन गुणों का वर्णन किया गया है, ऐसा मित्र मिलना बहुत मुश्किल ही है. अतः यदि ऐसा मित्र न मिले तो अकेला ही रहे पर कुटिल मित्र न बनाये.
2.मित्र और शत्रु(Friend And Enemy)-
(1.)हमारे हित में जो कार्य करता है वह हमारा मित्र है तथा जो हमारे नेक, अच्छे कार्यों का विरोध करता है वह शत्रु है.(2.)हमें विपत्ति, संकटों से बचाता है वह हमारा मित्र है जो हमें संकट, विपत्ति में डालता है वह हमारा शत्रु है.
(3.)मित्र हमारे सामने तो हमारी कमजोरियों, कमियों को बताता है तथा पीठ पीछे हमारे गुणों की प्रशंसा करता है जबकि शत्रु सामने तो मधुर वचन बोलते हैं तथा पीछे कार्य की हानि करते हैं.
(4.)मित्र पापों से बचाता है, कल्याण में लगाता है छिपाने योग्य बातों को छिपाता है जबकि शत्रु हमें पाप कार्यों में लगाता है तथा हमारे रहस्यों को प्रकट करता है.
(5.)मित्र अपने स्वार्थ के लिए हमारी हानि नहीं करता है जबकि शत्रु खुद के स्वार्थ के लिए हमारा नुकसान करता है.
(6.)मित्र किसी ऊँचे पद पर पहुँच जाता है या धनवान हो जाता है तो हमें नहीं भूलता है जबकि शत्रु हमसे कतराने लगता है तथा ऊँचे पद पर पहुँचने पर या धनवान होने पर मित्र से बात करना अपनी शान के खिलाफ समझता है.
(7.)मित्र धन या प्रभुता के मद में अन्धा नहीं होता है जबकि शत्रु धन या प्रभुता के मद में अन्धा हो जाता है.
(8.)मित्र हमारा हमेशा भला ही चाहता है, जान बूझकर नुकसान नहीं पहुँचाता है जबकि शत्रु हमेशा हमारा बुरा ही चाहता है तथा जानबूझकर नुकसान पहुँचाता है.
उक्त विवरण से हम शत्रु और मित्र की पहचान कर सकते हैं. परन्तु वस्तुतः न कोई किसी का मित्र होता है और न कोई किसी का शत्रु है. व्यवहार से मित्र और शत्रु बन जाते हैं. व्यवहार से शत्रु भी मित्र बन जाता है तथा मित्र भी शत्रु हो जाता है. अतः यह व्यवहार ही है जिससे कोई हमारा शत्रु और कोई हमारा मित्र बनता है.
प्रश्न :-परदेश में मित्र कौन है? गृहस्थी का मित्र कौन है? रोगी का मित्र कौन है? और मरते हुए का मित्र कौन है?
उत्तर :- परदेश में धन मित्र है, गृहस्थी का मित्र पत्नी है, रोगी का मित्र वैद्य है और मरते हुए का मित्र दान है.
3.मित्र के दोष ( Demerit of Friend)-
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परन्तु बातचीत और व्यवहार से मित्र की सच्चाई, चतुराई को जान लिया जाता है तथा उसकी नम्रता और शान्त स्वभाव को देखा जा सकता है.
कई मित्र पद पाकर या धनवान होने पर अपने मित्रों से कतराने लगता है. अतः ऐसे मित्रों से दूर ही रहना चाहिए.
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