Importance of Teaching Methods in Mathematics

Importance of Teaching Methods in Mathematics 

1.अध्यापन विधियों का महत्त्व(Importance of Teaching Method) -

पिछले कुछ वर्षों में हमारे शिक्षा संस्थानों में कक्षा अध्यापन करने की विधियों पर ध्यान दिया गया है। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में गतिशील शिक्षण पद्धतियों के महत्त्व एवं उपयोग पर विस्तार से प्रकाश डाला है। प्रभावी शिक्षण पद्धतियों के बारे में पिछले दशक में हमारे देश में राष्ट्रीय स्तर पर अनेक वर्कशाप, पुनश्चर्या पाठ्यक्रम, ग्रीष्मकालीन संस्थानो आदि के आयोजन हुए हैं और इसी संदर्भ में कहीं कहीं पर जागरूकता भी दृष्टिगत होती है। किन्तु हमारे अधिकांश शिक्षा संस्थानों और विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित शिक्षा संस्थानों में इन सब बातों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है। यह बात गणित अध्यापन के लिए भी सही है। गणित की कक्षाएं आज भी उतनी ही नीरस एवं प्राणहीन हैं जितनी की पहले थी। गणित के क्षेत्र में सफल अध्यापन के प्रयोग बहुत कम संख्या में किए गए हैं और नवीन विचारों सम्बन्धी साधनों की अत्यन्त कमी है। एक सामान्य गणित का अध्यापक नवीन पद्धतियों को अपनाने के लिए प्रायः तैयार नहीं है।
Importance of Teaching Methods in Mathematics

Importance of Teaching Methods in Mathematics 


शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि विद्यार्थियों को कक्षा में अध्ययन के विषय रुचिकर लगें। गणित विषय को कक्षा में रुचिकर बनाने के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता है। प्रभावी अध्यापन विधि पर ही कक्षा में अध्यापक की सफलता निर्भर करती है। ऐसा देखा गया है कि अनेक परिश्रमी गणित के अध्यापकों को कक्षा में उपयुक्त अध्यापन विधि के अभाव में सफलता नहीं मिलती है। गणित के शिक्षक के लिए गणित की विभिन्न विधियों का ज्ञान आवश्यक है अन्यथा वह कक्षा में उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल रहेगा।
गणित की अध्यापन विधि का चयन विषयवस्तु की आवश्यकता, विद्यार्थियों की क्षमता, अध्यापन के उद्देश्यों आदि पर निर्भर करता है। गणित के अध्यापक को अध्यापन विधि का चयन सतर्कता से करना चाहिए। अनुपयुक्त अध्यापन विधियों के कारण ही विद्यार्थियों को एक कठिन विषय लगता है तथा विद्यार्थियों को इस विषय से भय लगने लगता है। प्रभावी विधि के प्रयोग से विद्यार्थी गणित में रुचि लेते हैं तथा कक्षा में उनको यह विषय भयभीत नहीं करता। भिन्न भिन्न अध्यापन विधियों में मनोविज्ञान को एक महत्वपूर्ण आधार माना गया है।
अध्यापन विधियों के बारे में निर्णय पाठ्-सामग्री तथा उद्देश्यों के संदर्भ में ही किया जाना चाहिए। किसी भी उप विषय के अध्यापन के लिए कोई निश्चित विधि का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है। वही विधि सबसे उत्तम है जिससे विद्यार्थी विषय को रुचि से सीखें तथा विषयवस्तु के प्रत्ययों आदि को भलीभांति समझें। अनुभव एवं चिंतन द्वारा अध्यापन का प्रभावी प्रयोग सम्भव है।

2.परम्परागत विधियों की सीमाएं(Limitations of Traditional Teaching Method) -

गणित की परम्परागत अध्यापन विधियों में विद्यार्थी अत्यन्त धीमी गति से प्रगति करता है तथा विद्यार्थी एवं अध्यापक में आपस में विचार विमर्श अस्पष्ट एवं अनिश्चित होता है। अध्यापक कभी-कभी गणित की आन्तरिक संरचना को प्रेरणा का स्रोत नहीं बना पाता है।
(1.)इनमें विद्यार्थियों को अध्यापक एवं पाठ्यपुस्तक के निर्देशों का अनुकरण करना पड़ता है तथा बतायी गई प्रक्रियाओं के आधार पर ही समस्या हल करने को विद्यार्थी बाध्य होते हैं।
(2.)नियम-उदाहरण-अभ्यास का प्रयोग होता है।
(3.)विद्यार्थी को सोचे बिना तथा तर्कसंगता की जाँच किए बिना सिद्धान्तों एवं प्रक्रियाओं को रटना पड़ता है। विद्यार्थी log का अर्थ समझे बिना ही log के सूत्रों की सहायता से प्रश्न हल करते हैं। प्रमेयों की उपपत्तियों को बिना समझे याद करते हैं।
(4.)'गणित यांत्रिकी' के अध्यापन पर बल दिया जाता है। गणना-दक्षताओं को ही गणित माना जाता है जबकि गणना की दक्षताएँ तो साधन मात्र हैं।
(5.)गणित की भाषा के द्वारा नये विचार, तर्क, सृजनात्मकता, श्लाघा आदि का विकास नहीं होता है। परम्परागत अध्यापन विधियां व्यक्तिगत सुविधाओं की देन है।
(6.)विद्यार्थियों में रचनात्मक चिंतन को प्रोत्साहन नहीं मिलता है।
(7.)आज की आवश्यकताओं को गौण माना गया है तथा प्रारम्भिक गणनाओं की दक्षताओं को ही सिखाने में ही अधिक समय लगाया जाता है। हम इनमें से अनेक दक्षताओं का व्यापक उपयोग जीवन में नहीं करते हैं। बहुअंकीय संख्याओं का व्यापक उपयोग जीवन में नहीं करते हैं। बहुअंकीय संख्याओं की गणनाओं के लिए वर्तमान में सिखाई जा रही दक्षताएँ पर्याप्त नहीं है। उनके लिए कम्प्यूटरों की आवश्यकता होती है। कम्प्युटर का प्रयोग अनिवार्य किया जाना चाहिए।
(8.)गणित की वर्तमान अध्यापन विधियां बीते कल के लिए उपयुक्त है किन्तु आज की आवश्यकताओं के संदर्भ में अनुपयुक्त है।
(9.)क्यों और कैसे को गणित में गौण स्थान दिया जाता है।
(10.)विद्यार्थियों में समस्या हल करने की क्षमता के विकास पर ध्यान कम दिया जाता है।
(11.)इन विधियों के कारण विद्यार्थियों में गणित के प्रति दृष्टिकोण औपचारिकता, यंत्रवतता एवं पुरानापन लिए हुए होता है। अमूर्तन, संरचना, गणितीय माॅडल निर्माण आदि महत्त्वपूर्ण प्रक्रियाओं को अध्यापन विधियों में स्थान नहीं दिया जाता है। अधिकांश अध्यापक इन्हें गणित-चिंतन का आवश्यक भाग भी नहीं मानते हैं।
(12.)गणित की विषयवस्तु के इतिहास को प्रेरणा का आधार नहीं बनाया गया है जबकि गणितज्ञों की जीवनियां विद्यार्थियों में गणित के प्रति उत्साह एवं जागरूकता पैदा करने हेतु महत्त्वपूर्ण है।
(13.)गणित को विज्ञान के रूप में, गणित को कला के रूप में, गणित को भाषा के रूप में तथा गणित को एक उपकरण के रूप में नहीं प्रस्तुत किया जाता है।
(14.)गणित का अध्यापन विषय-केन्द्रित रहता है जबकि ये उद्देश्य-केन्द्रित होना चाहिए।
(15.)इस विषय की परीक्षाओं में दक्षताओं का मूल्यांकन प्रमुख रूप से किया जाता है। गणित के प्रति रुझान एवं सृजनात्मक चिंतन का मूल्यांकन नहीं किया जाता है।

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